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बिहार को विशेष पैकेज नाकाफी, विकसित बिहार के लिए विशेष दर्जा जरूरी

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दुर्गेश कुमार
2024 का आम बजट मुनादी कर रहा है कि न्याय के लिए राजा का अतिशक्तिशाली होना जरुरी नहीं है। लोकतंत्र में सरकारों को लोक का डर होना चाहिए। संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन द्वारा पेश बजट सरकार की मजबूरियां बयान करता है। यह मजबूरी में किया गया न्याय ही तो है कि मोदी युग में पहली बार युवाओं के रोजगार को लेकर बड़े पैमाने पर कोई नीतिगत निर्णय हुआ है। आगामी 5 सालों में एक करोड़ युवाओं को शीर्ष 500 कंपनियों में इंटर्नशिप, 20 लाख युवाओं के कौशल उन्नयन करने की योजना भारत की श्रम शक्ति की उत्पादकता बढ़ाने वाला कदम साबित होगा।
पिछले दो कार्यकाल में पिछड़े राज्यों के विकास को लेकर ऐसी पहल भी मोदी सरकार के किसी भी बजट में दिखाई नहीं दी थी। बिहार को 26000 करोड़ की लागत से तीन एक्सप्रेस वे पटना-पूर्णिया एक्सप्रेस वे, वैशाली-बोधगया एक्सप्रेस वे और बक्सर-भागलपुर-बोधगया-राजगीर-वैशाली-दरभंगा एक्सप्रेस वे बनाने की घोषणा हुई है। निश्चित तौर पर यह बिहार औद्योगिक विकास के लिए सहायक साबित होगा। वहीं, केन्द्र सरकार ने आंध्र प्रदेश की नई राजधानी के निर्माण के लिए 15000 करोड़ रूपए देने का ऐलान कर कर्ज में डूबे राज्य को राहत देने का काम किया है। सरकार ने कहा है कि पूर्वोदय योजना में आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड और बिहार को मानव संसाधन, आधारभूत संरचना और आर्थिक उन्नयन के क्षेत्र में सुनियोजित तरीके से विकास करने को तैयार है।
केन्द्र सरकार का यह स्वागत योग्य कदम है। शायद नरेन्द्र मोदी यह कदम 2014 में सत्ता में आने के बाद उठाए होते तो उनको 240 अंक का मलाल नहीं होता। कई विश्लेषकों की नजर में नमो (नरेन्द्र मोदी), नानी (नायडू-नीतीश) के आगे नतमस्तक हैं। हालांकि यह दशक गवाह रहा है कि जिसने भी मोदी के खिलाफ भृकुटी तानी उसे शिकंजे में ले लिया गया। अत: यह कहना अतिश्योक्ति न होगा कि 2024 में जनता ने न्याय किया है। नरेन्द्र मोदी को आंकड़ा ही ऐसा मिला है कि जनमत के आगे नतमस्तक नहीं हुए तो खैर नहीं होगा। सरकार सुरक्षित रखने का दबाव उन्हें शासकीय मर्यादाओं की हद से बहुत अधिक बाहर निकलने नहीं देगा।
हालांकि इस बजट में भी बिहार के विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त होने की हसरत अधूरी रह गई है, जो बिहारियों के जख्मों को कुरेदने जैसा है। आधारभूत संरचना के लिए 26000 करोड़ का विशेष पैकेज साढ़े तेरह करोड़ बिहारियों के जख्म पर मरहम भर है। सनद रहे कि भाड़ा समानीकरण अधिनियम, 1952 के लागू होने के बाद बिहार विकास के मानकों पर तेजी से गिरता गया। अविभाजित बिहार के खनिज संसाधनों से फैक्ट्रियां दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात और तमिलनाडू जैसे राज्यों में लगी। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने क्षेत्रीय विषमता मिटाने के नाम पर भाड़ा समानीकरण अधिनियम को लागू किया था। जिसके कारण बिहार, बंगाल और ओड़िशा जैसे राज्यों की आर्थिक उम्मीदों पर चोट पहुंचा। तब भारत का 40 प्रतिशत खनिज अविभाजित बिहार में उत्पादित होता था। लोहा, एल्यूमिनियम और सीमेंट के अधिकांश प्रोजेक्ट बिहार में लगते। लेकिन भाड़ा समानीकरण अधिनियम के कारण तमिलनाडू, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का विकास हुआ और दूसरी तरफ बिहार उद्योग के मामले में पिछडऩे लगा। बाढ़, सुखाड़, घनी आबादी और अस्थिर सरकारों के जाल में बिहार की आर्थिक अवनति देख कर सबसे पहले विशेष दर्जे की मांग 1980 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे ने उठाया था। उन्होंने आर्थिक पिछड़ेपन और केंद्रीयय सहायता की आवश्यकता का हवाला दिया। हालांकि, दुबे की मांग को केन्द्रीय स्तर पर अनसुना कर दिया गया और इस मांग को भी अधिक समर्थन नहीं मिला। बिंदेश्वरी दुबे वैसे भी कांग्रेस आलाकमान के सियासी मोहरे थे न कि लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे बाजीगर थे। नतीजतन शक्तिशाली केंद्र सरकार के आगे बिहार की आवाज बेअसर होना ही था।
फिर लालू प्रसाद यादव के युग (1990-2005) में तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी एक बार बिहार को विशेष दर्जे की मांग उठाई, लेकिन इस बार भी मांग में गंभीरता नहीं थी। दूसरी तरफ इन दिनों बिहार की आर्थिक समस्याएं और अधिक गहरी हो गईं। अन्य राज्यों की अपेक्षा बिहार और अधिक पिछड़ता गया। साल 2000 में बिहार से झारखंड के अलग होने के बाद बिहार में खनिज संसाधन के नाम पर बालू ही शेष बचा था। उद्योगों के लिए जरुरी खनिज संसाधन झारखंड के हिस्से में आए। तब मजाकिया लहजे में कहा जाने लगा कि बिहार में बाढ़, बालू और लालू बचे हैं। विभाजन के बाद विशेष राज्य के दर्जे की ज़रुरत स्पष्ट हो गई थी।
2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार द्वारा इस मांग को लगातार जोर-शोर से उठाया गया। जनता दल यू ने बिहार में हस्ताक्षर अभियान चला कर राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया। नीतीश कुमार का तर्क रहा कि चूंकि बिहार तेजी से विकास करने के बावजूद भी राष्ट्रीय औसत को छूने में दशकों लग जायेगा, इसलिए जरूरी है कि विशेष राज्य का दर्जा मिले ताकि कम समय में बिहार विकसित राज्यों की श्रेणी में आ जाए। उन्होंने कई बार कहा कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने में कानूनी अड़चन आता है तो नियमों में संशोधन करना चाहिए।
मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पिछड़े राज्यों की पहचान करने के लिए साल 2013 में गठित रघुराम राजन समिति ने बिहार को सबसे कम विकसित राज्य के रूप में चिन्हित किया था। समिति ने समग्र विकास सूचकांक के आधार पर केंद्रीय सहायता प्रदान करने की एक नई प्रणाली की भी सिफारिश की थी, लेकिन इसने भी विशेष दर्जे की सिफारिश नहीं की। समिति ने बहुआयामी विकास सूचकांक (एमडीआई स्कोर) के आधार पर राज्यों को आर्थिक मदद करने का सुझाव दिया था। सबसे कम विकसित राज्यों की सूची में ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, उत्तर प्रदेश और राजस्थान को चिन्हित किया था।
साल 2015 में योजना आयोग की जगह नीति आयोग के अस्तित्व में आने के बाद विशेष दर्जे को प्रदान करने की रूपरेखा का पुनर्मूल्यांकन किया गया। किंतु नीति आयोग ने भी समग्र विशेष दर्जे के बजाय राज्यों को विभिन्न मद में वित्तपोषण पर जोर दिया। इस बदलाव के बिहार के लिए मौजूदा ढांचे के तहत विशेष दर्जा प्राप्त करना और मुश्किल हो गया।
बिहार के विशेष राज्य के दर्जा को जनता के बीच ले जाने के लिए नीतीश कुमार ने भले ही लगातार सवाल उठाते रहे हो, लेकिन नरेन्द्र मोदी ने भी 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान विशेष दर्जे की मांग को पूरा करने का वादा किया था। लेकिन चुनाव के बाद कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। बिहार विधान सभा ने विशेष दर्जे की मांग करते हुए कई प्रस्ताव पारित किए। इन प्रस्तावों का उद्देश्य राज्य की स्थिति को मजबूत करना और केंद्र सरकार पर कार्यवाही के लिए दबाव बनाना था। नीतीश कुमार ने कई बार इस मसले पर मुखर हो कर अपना पक्ष रख चुके हैं।
2024 तक, विशेष दर्जे की मांग अनसुलझी बनी हुई है। जनता दल यूनाइटेड के सांसद रामप्रीत मंडल द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में केन्द्रीय वित राज्य मंत्री पंकज कुमार चौधरी ने विशेष राज्य के दर्जा की मांग को खारिज कर दिया। केंद्र सरकार का कहना है कि वह अन्य प्रकार की सहायता और सुधारों पर ध्यान केंद्रित की है, जैसे विशेष पैकेज और विशिष्ट परियोजनाओं के लिए अधिकतम रूप में वित्तपोषण कर रही है। केंद्र सरकार का ऐसा कहना छलावा मात्र है। बिहार जैसे गरीब राज्य जो पिछले दो दशक से सबसे तेज़ विकास दर के साथ आगे बढ़ रहा है, उसे राष्ट्रीय औसत तक ले जाने के लिए विशेष पैकेज नाकाफी है। विशेष राज्य के दर्जा की मांग पर केन्द्र के इनकार के बाद विरोधी पक्ष से नीतीश कुमार को खरी-खोटी सुनाई। राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने उनसे इस्तीफे की मांग की। चूंकि मोदी सरकार जेडीयू के 12 सांसदों के समर्थन से चल रही है, इसलिए ऐसी मांग लाजिमी है।
विशेष राज्य के दर्जा के लिए बिहार पूर्व से लागू मानदंडों जैसे पर्वतीय राज्य, कम जनसंख्या होने के मामलों में पर खरा नहीं उतरता है। इसके बावजूद भी सबसे घनी आबादी और लैंडलॉक्ड राज्य होना ऐसे विषय है जिसके संबंध में केन्द्र को पुनर्विचार करना चाहिए था। बिहार की अर्थव्यवस्था राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है। आर्थिक विकास के द्योतक सभी मानकों पर यथा-प्रति व्यक्ति आय, गरीबी दर और साक्षरता दर के मामले में बिहार पीछे हैं। अर्थव्यवस्था कृषि पर निर्भर है, जिसमें 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि में लगी हुई है। किंतु जनसंख्या का घनत्व सबसे ज्यादा और दो तिहाई जमीन बाढ़ प्रभावित है। हालांकि, बाढ़, सिंचाई सुविधाओं की कमी और खराब बुनियादी ढांचे जैसे अन्य कारण होने की वजह से कृषि उत्पादकता भी पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के मुकाबले कम है। बिहार में अक्सर बाढ़ आता है, जो फसलों, घरों और बुनियादी ढांचे को तबाह कर देता हैं। मानव विकास सूचकांक में भी बिहार की स्थिति बेहतर नहीं है। औद्योगिक उत्पादन नगण्य है। रोजगार के लिए अन्य राज्यों में जाना पड़ता है।
इन्हीं परिस्थितियों से उत्पन्न आर्थिक असमानता का समाधान तो खोजना ही होगा। मौजूदा प्रावधानों में समाधान का सबसे बेहतर रास्ता बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देना है। बिहार को विशेष दर्जा देने से बिहार को अधिक केंद्रीय धनराशि और उद्योगों में अधिकतम निवेश के लिए अधिकतम प्रस्ताव मिलते, जो बिहार के आर्थिक पुनरुद्धार का माध्यम होता। वित्तपोषण की जगह बिहार को आत्मनिर्भर बनाने के लिए केंद्र सरकार को विशेष राज्य के मानदंडों का पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए ताकि बिहार जैसे अन्य राज्यों की जटिल आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके और भारत में संतुलित क्षेत्रीय विकास सुनिश्चित किया जा सके। किंतु हैरत है कि कभी क्षेत्रीय विषमता को दूर करने के आह्वान पर अविभाजित बिहार के खदानों से खनिज का उपयोग कर कई तटीय राज्य अमीर हो गए, किंतु बिहार खुद गरीब हो गया। ऐसे में क्षेत्रीय विषमता को दूर करने के लिए कानून में संशोधन करने को भी केन्द्र सरकार तैयार नहीं है।

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