
सितम्बर 1932 में गाह (अब पाकिस्तान में) नामक छोटे से कस्बे में जन्मे मनमोहन सिंह को देश की आजादी के साथ ही हुए बंटवारे के चलते 1947 में भारत आना पड़ा था. अपने जीवन के प्रारम्भिक 12 साल उन्होंने एक ऐसे गाँव में गुजारे जहाँ न बिजली थी न नल, न स्कूल न अस्पताल. गाँव से दूर स्थित एक उर्दू मीडियम स्कूल में उन्होंने पढ़ाई की, जिसके लिए उन्हें रोजाना मीलों पैदल चलना पड़ता था. रात को केरोसिन लैंप की रोशनी में वे पढ़ाई करते. आंखों रोशनी कम होने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया था कि लैंप के मद्धिम प्रकाश में पढ़ने से उनकी आँखें कमजोर हो गईं. उर्दू उनकी पहली जुबान है. जब भी उन्हें हिन्दी में भाषण देना होता है, तो वह उर्दू के ही बड़े अक्षरों में लिखा होता है.
मनमोहन अपनी शिक्षा पूरी कर प्रख्यात अर्थशास्त्री रॉल प्रेबिश के अधीन संयुक्त राष्ट्र संघ में काम कर रहे थे कि उन्हें दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में लेक्चररशिप का ऑफर मिला. सिंह ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तथा 1969 में भारत लौट आए. इस पर डॉ. प्रेबिश को स्वाभाविक रूप से आश्वर्य हुआ कि मनमोहन जैसा विद्वान अर्थशास्त्री संयुक्त राष्ट्र की प्रतिष्ठित नौकरी छोड़कर आखिर भारत क्यों लौट रहा है. तुम मूर्खता कर रहे हो, उन्होंने मनमोहन से कहा, मगर साथ ही यह भी जोड़ा कि “मूर्खता करना भी कभी-कभी बुद्धिमानी होती है.”
मनमोहन में किसी भी प्रकार से भ्रष्ट न होने की विलक्षण क्षमता है, मगर दबाव के आगे वे झुक जरूर जाते हैं. पूर्व आईएएस व एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) के डायरेक्टर प्रतीप के. लाहिरी की आत्मकथा ‘ए टाइड इन द अफेयर्स ऑफ मेन: ए पब्लिक सर्वेट रिमेंबर्स’ (प्रकाशित रोली बुक्स) में मनमोहन से जुड़ी कई बातों का जिक्र मिलता है. लाहिरी के मुताबिक भारतीय इतिहास में मनमोहन सिंह उन कार्यों के लिए अधिक याद किए जाएँगे जो उन्होंने प्रधानमंत्री (2004-2014) के बजाय वित्त मंत्री (1991-96) के रूप में किए. अपनी पुस्तक में लाहिरी ने ऐसी कई घटनाओं का उल्लेख किया है, जब मनमोहन ने दबाव के आगे घुटने टेक दिए.
इस उच्च स्तरीय नौकरशाह को मनमोहन सिंह के साथ पहली बार बतौर राजस्व सचिव काम करने का मौका मिला. फिर लाहिरी एडीबी के निदेशक हो गए, जबकि मनमोहन एडीबी में बोर्ड ऑफ द गवर्नर्स के गवर्नर थे. लाहिरी के मुताबिक मनमोहन अत्यंत सादगी पसन्द हैं.
“यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बतौर प्रधानमंत्री उन्हें ऐसे आरोपों का सामना करना पड़ा कि वे ऐसी सरकार के प्रधान हैं, जो घोटालों से घिरी है. सम्भवतः यह इस वजह से था कि अत्यंत शरीफ व्यक्ति होने के कारण मनमोहन मेंउस दृढ़ता का अभाव था, जो उनकी सरकार में शामिल चन्द उद्दंड व पथभ्रष्ट मंत्रियों को काबू में करने के लिए जरूरी थी.” लाहिरी के मुताबिक मनमोहन एक बहुत अच्छे वित्त मंत्री तो साबित हुए लेकिन अपेक्षाकृत एक अच्छे प्रधानमंत्री वे नहीं बन पाए. “कहीं न कहीं यह आश्चर्यजनक ही है कि अर्थशास्त्र में मनमोहन सिंह को विशेषज्ञता हासिल थी, तथापि संप्रग सरकार के दूसरे कार्यकाल के पतन का कारण देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था बनी. कहा गया था कि मनमोहन, पी. चिदंबरम व मोंटेक सिंह अहलूवालिया की त्रयी केरूप में सामने आई ड्रीम टीम भारत को खुशहाली की तरफ ले जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. सन् 2014 में संप्रग की हार के कारणों में एक महत्त्वपूर्ण कारण सरकार की आर्थिक मोर्चे पर नाकामी रही, जिससे वृद्धि दर बहुत गिर गई थी.”
जूनियर मंत्रियों को नियंत्रित रख पाने में मनमोहन की नाकामी को लेकर लाहिरी ने एक घटना प्रस्तुत की है. बात तब की है जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और मनमोहन वित्त मंत्री. 2015 में अपनी मृत्यु तक 10 जनपथ (सोनिया गांधी का निवास स्थल) के वफादार रहनेवाले चार्टर्ड एकाउंटेंट रामेश्वर ठाकुर मनमोहन के कनिष्ठ मंत्री थे.
लाहिरी के मुताबिक “मुझे पता चला कि रामेश्वर ठाकुर की नियुक्ति राजस्व विभाग में बतौर एमओएस प्रभारी होने वाली है. एक चार्टर्ड एकाउंटेंट तथा चार्टर्ड एकाउंटेंसी फर्म के पार्टनर की हैसियत से किसी कर अपर्वचन मामले में ठाकुर की पेशी आयकर विभाग में हो चुकी थी.” लाहिरी उस समय राजस्व सचिव थे. वे लिखते हैं कि “मामला किसी सम्पत्ति का था सो राजस्व सचिव होने के नाते मैंने वित्त मंत्री से निवेदन किया कि राजस्व विभाग के प्रभारी की हैसियत से ठाकुर की नियुक्ति ठीक नहीं होगी. वित्त मंत्री मुझसे सहमत थे. उन्हें लग रहा था कि ठाकुर अकाउंटेंसी फर्म से जुड़े थे और कर अपवंचन मामले में विभागीय अधिकारियों के सामने पेश हो चुके हैं. सो, राजस्व विभाग में बतौर एमओएस उनकी नियुक्ति से हितों को प्रभावित करने का मामला बनेगा, जो ठीक नहीं है.” लाहिरी लिखते हैं, इसके एक दिन बाद वित्त मंत्री ने मुझसे कहा कि निर्णय लिया जा चुका है तथा ठाकुर वित्त विभाग में एमओएस होंगे.
एक दूसरी घटना अलग तरह की है. फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) द्वारा दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को बतौर वक्ता भाग लेना था. इस कार्यक्रम मेंउनकी धर्मपत्नी गुरशरण कौर को भी आमंत्रित किया गया था. मनमोहन सीधे अपने कार्यालय से कार्यक्रम स्थल के लिए रवाना हो गए. गुरशरण कौर को लेने एक उप सचिव नई दिल्ली स्थित उनके घर पहुँचा. स्वाभाविक रूप से इस अधिकारी को लगा था कि भारत के वित्त मंत्री के घर कई सरकारी वाहन होंगे, जिससे वह वित्त मंत्री की पत्नी को आयोजन स्थल तक ले जाएगा. परन्तु घर पहुँचकर वे आश्चर्यचकित रह गए, जब वित्त मंत्री की धर्म पत्नी ने बताया कि मंत्रीजी के पास एक ही सरकारी वाहन है, जिसका उपयोग वे स्वयं करते हैं.
इससे सरकारी अधिकारी को ग्लानि होने लगी, लेकिन गुरशरण कौर सामान्य थीं. उन्होंने मंद-मंद मुस्काते हुए अधिकारी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वे चाहें तो उनकी मारुति 800 कार ड्राइव कर आयोजन स्थल तक पहुँच सकते हैं. इस घटना में भारत के इस प्रधानमंत्री व उसके परिवार की सादगी का महापुराण छुपा है. यह लिखना जरूरी नहीं है कि देश के केन्द्रीय क्या, राज्यों के मंत्रियों, अधिकारियों के पास कई-कई सरकारी या विभिन्न उपक्रमों के वाहन हुआ करते हैं, लेकिन केन्द्रीय वित्त मंत्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक वाहन का उपयोग किया करते थे. जिसमें उनकी पत्नी की भी हिस्सेदारी नहीं थी.
दिलचस्प बात यह है कि सोनिया गांधी अपने दिवंगत पति राजीव गांधी के विपरीत मनमोहन सिंह को खास तवज्जो देती हैं. 1985 में राजीव गांधी ने नगरीय केन्द्रित विकास तथा अर्थव्यवस्था की पुनःसंरचना का विचार रखा. मनमोहन तब योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे. प्रधानमंत्री होने के नाते राजीव इसके अध्यक्ष थे.
मनमोहन और राजीव के रिश्तों के बारे में सीएजी ऑफ इंडिया के पद से सेवानिवृत्त होनेवाले पूर्व गृह सचिव सीजी सोमैया नेअपनी आत्मकथा ‘द ऑनेस्ट ऑलवेज स्टैंड अलोन’ (प्रकाशित नियोगी बुक्स) में एक प्रसिद्ध घटना का जिक्र किया, जो लोगों के जेहन से गायब हो गई थी. असल में राजीव ने तब मनमोहन के नेतृत्व वाले योजना आयोग को ऐसे ‘जोकरों का गिरोह’ के रूप में परिभाषित किया था, जो विकास के किसी भी नए विचार को रद्द कर देता था.
इससे मनमोहन बहुत दुखी हुए और वे योजना आयोग से इस्तीफा देने पर उतारू हो गए. सोमैया अपनी किताब में लिखते हैं कि “मैं एक घंटे उनके पास बैठा और समझाया कि इस तरह का अतिवादी कदम न उठाएँ और प्रधानमंत्री की बात को उनकी नासमझी बताया. मैंने उन्हें समझाया कि हमारे प्रधानमंत्री अभी युवा और अनुभवहीन हैं. सो यह हमारा कर्तव्य है कि हम उन्हें वास्तविकता बताएँ, न कि उन्हें छोड़कर चल दें. अन्ततः मैंने उन्हें मना लिया कि वे जल्दबाजी में कोई कदम न उठाएँ और यह मेरा एक बहुत पवित्र कार्य था.” मगर आर्थिक मामलों की समझ रखने वाले पत्रकार विवेक कौल ने अपने एक कॉलम में कटाक्ष किया कि ‘जोकर’ कहे जाने के बाद भी मनमोहन ने योजना आयोग नहीं छोड़ा.
राजीव गांधी के दौर में मनमोहन हाशिये पर ही रहे और उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भेज दिया गया. 22 जून, 1991, शनिवार की सुबह वे बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित यूजीसी के अपने कार्यालय में थे कि उनके लिए फोन आया. उसी दोपहर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले पीवी नरसिम्हा राव लाइन पर थे. उन्होंने मनमोहन से सीधे कहा, ‘तुम वहाँ क्या कर रहे हो? घर जाओ और तैयार होकर सीधे राष्ट्रपति भवन आ जाओ.’
इसके ठीक दो दिन बाद यानी 24 जून, 1991 को मनमोहन ने देश के केन्द्रीय वित्त मंत्री की हैसियत से आर्थिक सुधारों की घोषणा करने के लिए पहली पत्रकार वार्ता बुलाई. इसमें उन्होंने अनावश्यक सरकारी हस्तक्षेप खत्म करने की बात करते हुए कहा, “दुनिया बदल चुकी है, अब देश को भी बदलना है.” इस एतेहासिक भाषण के बाद मनमोहन सिंह ने राजनैतिक रूप से पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
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